उत्तर प्रदेश

जांच के दौरान प्रक्रिया का पालन नहीं तो सजा आदेश की स्थिरता संदिग्ध हो जाती है : हाई कोर्ट

प्रयागराज । इलाहाबाद हाई कोर्ट ने एक न्यायिक अधिकारी के मामले पर विचार करते हुए कहा कि यदि किसी दोषी अधिकारी के खिलाफ जांच स्तर पर प्रक्रियागत जरूरी नियमों का पालन नहीं किया गया है तो उसके आधार पर बाद में पारित दंड आदेश की वैधता पर प्रश्नचिह्न उठाया जा सकता है।

जस्टिस सौमित्र दयाल सिंह एवं जस्टिस दोनादी रमेश की खंडपीठ ने न्यायाधीश पंकज की याचिका स्वीकार करते हुए कहा कि जांच के दौरान प्रक्रियागत आवश्यकताओं का पालन न करना दंड आदेश की वैधता के बारे में गम्भीर चिंता पैदा करता है। यह जरूरी है कि अनुशासनात्मक प्रक्रिया इस तरह से की जाए कि प्रभावित पक्षों को अपना मामला पेश करने, आरोपों का जवाब देने और खुद का बचाव करने का उचित अवसर मिले। कोर्ट ने इसी के साथ दंडादेश रद्द कर दिया। याची का 2018 से इन्क्रीमेंट रोक दिया गया था।

याची को सिविल जज के रूप में चयनित किया गया और जिला मऊ में उसे तैनाती मिली। उनकी सेवा सरकारी कर्मचारी (सेवा और आचरण) नियम, 1956, यूपी सरकारी कर्मचारी (अनुशासन और अपील) नियम, 1999 से शासित होती है। सेवा में भर्ती होने के तुरंत बाद याची को सोशल मीडिया पर प्रतियोगी परीक्षाओं से संबंधित प्रश्नों वाले कई संदेश मिले। याचिकाकर्ता को संदेश भेजने वालों ने बाद में न्यायिक अधिकारी के खिलाफ 26 दिसम्बर 2018 को शिकायत दर्ज कराई।

याची ने 16 जनवरी 2019 को अपना जवाब प्रस्तुत किया और 17 अक्टूबर 2019 को इसे रजिस्ट्रार जनरल, इलाहाबाद हाई कोर्ट को भेज दिया। याची को आरोप पत्र जारी किया गया और जिला न्यायाधीश, मऊ को याची के मामले में जांच अधिकारी नियुक्त किया गया। आरोप पत्र में अन्य बातों के अलावा आरोप लगाया गया कि याचिकाकर्ता ने प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी में मदद करने के बहाने शिकायतकर्ता (एबीसी) के साथ बलात्कार किया था।

आरोप के जवाब में याची ने 24 अगस्त 2019 को अपना जवाब पेश किया। उन्होंने आरोपों से इनकार किया और शिकायतकर्ता के बारे में तथ्य रिकॉर्ड पर लाए। जांच अधिकारी ने 03 दिसम्बर 2019 को अपनी रिपोर्ट पेश की, जिसके द्वारा याची को बलात्कार के मुख्य आरोप से मुक्त कर दिया गया। हालांकि, सोशल मीडिया पर एक अज्ञात महिला का फ्रेंड रिक्वेस्ट स्वीकार करने, उसकी संदिग्ध तस्वीरें दिखाने और उसे पैसा हस्तांतरित करने के सम्बंध में उनके खिलाफ प्रतिकूल टिप्पणियां की गईं।

जांच रिपोर्ट के साथ याची को एक पूरक नोटिस जारी किया गया। याची ने 13 जनवरी 2020 को जवाब प्रस्तुत किया, और उसके खिलाफ 13 मई 2022 को आदेश पारित कर दिया गया। याची के वकील ने तर्क दिया कि जांच अधिकारी ने 1999 के नियमों द्वारा निर्धारित प्रक्रिया का पालन नहीं किया है। यह प्रस्तुत किया गया कि जांच रिपोर्ट स्वीकार्य नहीं है, क्योंकि याची न्यायिक अधिकारी को आदेश पारित करने से पहले अपना पक्ष रखने का अवसर नहीं दिया गया था।

अपनी दलीलों के समर्थन में याची ने कहा कि मुख्य रूप से 16 जनवरी 2019 को जारी नोटिस के जवाब में उसके द्वारा प्रस्तुत जवाब पर भरोसा किया। तर्क दिया कि नोटिस दिए जाने के बावजूद शिकायतकर्ता ने जांच कार्यवाही में भाग नहीं लिया और उसके खिलाफ लगाए गए आरोपों को साबित करने के लिए कोई सबूत नहीं मिला। हाई कोर्ट ने माना कि 13 मई 2022 को सजा आदेश पारित करने के लिए कोई उचित कारण नहीं थे।

हाई कोर्ट ने कहा कि प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों और निष्पक्ष और पारदर्शी तरीके से कार्यवाही का संचालन करने का पूरी तरह से उल्लंघन किया गया था। कोर्ट ने कहा कि प्रक्रिया का पालन न करने से दंड आदेश की वैधता पर चिंता पैदा हुई। कोर्ट ने माना कि विभागीय कार्यवाही अर्धन्यायिक प्रकृति की थी और प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का पालन किया जाना चाहिए।

हाईकोर्ट ने कहा कि हालांकि, याची ने जिला न्यायाधीश, मऊ द्वारा जारी नोटिस और आरोप-पत्र के जवाब में आरोप से स्पष्ट रूप से इनकार किया था, लेकिन आश्चर्यजनक रूप से बिना कोई सबूत पेश किए, जांच अधिकारी ने अप्रासंगिक और बाहरी तथ्यों को ध्यान में रखते हुए याचिकाकर्ता को बलात्कार के आरोप से मुक्त करने के बाद एक प्रतिकूल टिप्पणी कर दी।

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