मनोरंजन

खूबसूरत चेहरे और दिलकश आवाज की जादूगरनी थी ‘नूरजहां’

मुंबई। सिने जगत में मल्लिका-ए-तरन्नुम के नाम से मशहूर पार्श्वगायिका अल्लाहवासी उर्फ नूरजहाँ ने अपनी आवाज में जिन गीतों को पिरोया वे आज भी अपना जादू बिखरते हैं। 21 सितंबर 1926 को पंजाब के एक छोटे से कस्बे कसुर में एक मध्यमवर्गीय परिवार में जब नूरजहाँ का जन्म हुआ तो नवजात शिशु के रोने की आवाज को सुन बुआ ने कहा- इस बच्ची के रोने में भी संगीत की लय है। नूरजहाँ के माता-पिता थिएटर में काम किया करते थे। घर में फिल्मी माहौल होने के कारण नूरजहाँ का रुझान बचपन से ही संगीत की ओर हो गया था।नूरजहाँ ने यह निश्चय किया कि बतौर पार्श्वगायिका अपनी पहचान बनाएगी। उनकी माता ने नूरजहाँ के मन में संगीत के प्रति बढ़ते रुझान को पहचान लिया।

उन्हें इस राह पर आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया और उनके लिए संगीत सीखने की व्यवस्था घर पर ही करा दी। नूरजहाँ ने संगीत की प्रारंभिक शिक्षा कजानबाई से और शास्त्रीय संगीत की शिक्षा उस्ताद गुलाम मोहम्मद तथा उस्ताद बड़े गुलाम अली खान से ली थी। वर्ष 1930 में नूरजहाँ को इंडियन पिक्चर के बैनर तले बनी एक मूक फिल्म ‘हिन्द के तारे’में काम करने का मौका मिला। इसके कुछ समय के बाद उनका परिवार पंजाब से कोलकाता चला आया। इस दौरान उन्हें करीब 11 मूक फिल्मों में अभिनय करने का मौका मिला।वर्ष 1931 तक नूरजहाँ ने बतौर बाल कलाकार अपनी पहचान बना ली थी। वर्ष 1932 में प्रदर्शित फिल्म शशि पुन्नु नूरजहाँ के सिने करियर की पहली टॉकी फिल्म थी। इस दौरान नूरजहाँ ने कोहिनूर यूनाइटेड आर्टिस्ट के बैनर तले बनी कुछ फिल्मों में काम किया। कोलकाता में उनकी मुलाकात फिल्म निर्माता पंचोली से हुई।

पंचोली को नूरजहां में फिल्म इंडस्ट्री का एक उभरता हुआ सितारा दिखाई दिया और उन्होंने उन्हें अपनी नई फिल्म गुल-ए-बकावली लिए चुन लिया।इस फिल्म के लिए नूरजहाँ ने अपना पहला गाना ‘साला जवानियाँ माने और पिंजरे दे विच’ रिकॉर्ड कराया। लगभग तीन वर्ष तक कोलकाता रहने के बाद नूरजहाँ वापस लाहौर चली गई। वहाँ उनकी मुलाकात मशहूर संगीतकार जी.ए. चिश्ती से हुई, जो स्टेज प्रोग्राम में संगीत दिया करते थे। उन्होंने नूरजहाँ से स्टेज पर गाने की पेशकश की जिसके एवज में नूरजहाँ को प्रति गाना साढ़े सात आने दिए गए। साढ़े सात आने उन दिनों अच्छी खासी राशि मानी जाती थी।वर्ष 1939 में निर्मित पंचोली की संगीतमय फिल्म गुल-ए-बकावली की सफलता के बाद नूरजहाँ फिल्म इंडस्ट्री की चर्चित शख्सियत बन गईं। इसके बाद वर्ष 1942 में पंचोली की ही निर्मित फिल्म खानदान की सफलता के बाद नूरजहाँ बतौर अभिनेत्री फिल्म इंडस्ट्री में स्थापित हो गईं।

फिल्म खानदान में नूरजहां पर फिल्माया गाना ‘कौन सी बदली में मेरा चाँद है आजा’ श्रोताओं के बीच काफी लोकप्रिय भी हुआ। फिल्म खानदान की सफलता के बाद नूरजहाँ ने फिल्म के निर्देशक शौकत हुसैन से निकाह कर लिया। इसके बाद वे मुंबई आ गईं। इस बीच नूरजहाँ ने शौकत हुसैन की निर्देशित नौकर, जुगनू (1943) जैसी फिल्मों में अभिनय किया।नूरजहां अपनी आवाज में नित्य नए प्रयोग किया करती थीं। अपनी इन खूबियों की वजह से वे ठुमरी गायिकी की महारानी कहलाने लगीं।

इस दौरान नूरजहाँ की दुहाई (1943), दोस्त (1944) और बड़ी माँ, विलेज गर्ल (1945) जैसी कामयाब फिल्में प्रदर्शित हुई। इन फिल्मों में उनकी आवाज का जादू श्रोताओं के सिर चढ़कर बोला। इस तरह नूरजहाँ मुंबइया फिल्म इंडस्ट्री में मल्लिका-ए-तरन्नुम कही जाने लगीं। वर्ष 1945 में नूरजहां की एक और फिल्म जीनत भी प्रदर्शित हुई। इस फिल्म की एक कव्वाली आहें ना भरी शिकवे ना किए… कुछ भी ना जुवाँ से काम लिया… श्रोताओं के बीच बहुत लोकप्रिय हुई। नूरजहाँ को वर्ष 1946 में प्रदर्शित निर्माता-निर्देशक महबूब खान की अनमोल घड़ी में काम करने का मौका मिला। महान संगीतकार नौशाद के निर्देशन में नूरजहाँ का गाए गीत आवाज दे कहाँ है, आजा मेरी बर्बाद मोहब्बत के सहारे, जवाँ है मोहब्बत श्रोताओं के बीच आज भी लोकप्रिय हैं।

मनोरंजन-नूरजहां आवाज जादू तीन अंतिम मुंबई वर्ष 1947 में भारत विभाजन के बाद नूरजहाँ ने पाकिस्तान जाने का निश्चय कर लिया। फिल्म अभिनेता दिलीप कुमार ने जब नूरजहाँ से भारत में ही रहने की पेशकश की तो नूरजहाँ ने कहा- मैं जहाँ पैदा हुई हूँ वहीं जाऊँगी। पाकिस्तान जाने के बाद भी नूरजहाँ ने फिल्मों में काम करना जारी रखा।लगभग तीन वर्ष तक पाकिस्तान फिल्म इंडस्ट्री में खुद को स्थापित करने के बाद नूरजहाँ ने फिल्म चैनवे का निर्माण और निर्देशन किया। उसने बॉक्स ऑफिस पर खासी कमाई की।

 

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