स्वदेशी के पुनर्जागरण के पुरोधा धर्मपाल जी
जन एक्सप्रेस:
(धर्मपाल जी के जन्मदिन पर विशेष)
आज बदलते परिदृश्य में इंसान इंसानियत का शत्रु बना हुआ है, देश के अंदर हर व्यक्ति बटा हुआ है, पहले धर्म के आधार पर, फिर जाति के आधार पर, आर्थिक आधार पर, शिक्षा के आधार पर, भाषा के आधार पर, क्षेत्र के आधार पर, इन सब मूर्त कारणों से राष्ट्र का विकास पूर्णतया बाधित हो रहा है। हर इंसान अपने आप से लड़ रहा है, भारत की इन बदलती हुई तस्वीरों के लिए कोई अचानक से हुए परिवर्तन जिम्मेदार नही हैं वरन तेजी से बढ़ने एवं अपने को सफल बनाने के लिए तथा दूसरों से अलग दिखने के लिए पूर्व से चली आ रही हमारी भारतीय संस्कृति, सभ्यता एवं समाज निष्ठता को हमारे द्वारा नजरअंदाज किया जाना ही प्रमुख कारण है। भारतीय समाज और राष्ट्र के प्रति अगाध श्रद्धा से सिंचित विराट ह्रदय वाले धर्मपाल जी भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति के इस तरह के पतन को सहन नही कर सके। भारतीय ज्ञान परम्परा एवं भारतीय मूल्यों से सिंचित हृदय वाले गांधीवादी विचारक धर्मपाल जी का जन्म कांधला मुजफ्फरनगर में 19 फरवरी 1922 ई. को हुआ था। धर्मपाल जी ने अपनी मजबूत सभ्यता-संस्कृति, शिक्षा, चिकित्सा व्यवस्था के प्रति गहन चिंतन व्यक्त किया। गांधी के वाक्य ‘रमणीय वृक्ष’ को जस का तस लेकर धर्मपाल जी ने कार्य किया है और साक्ष्यों एवं प्रमाणों के आधार पर यह साबित किया कि ब्रिटिश शासन ने भारत की शिक्षा पद्धति का अपहरण करते हुए भारतीय संस्कृति का अपहरण किया, इसका एक उदहारण देते हुए धर्मपाल जी लिखते हैं कि ‘1830 में ब्रिटिश गवर्नर जर्नल बेंटिक ने इस बात पर संतोष व्यक्त करते हुए कहते हैं कि-‘सम्पन्न और प्रतिष्ठित भारतीय अब पश्चिमी शिष्टाचार तथा व्यवहार की विधियां अपनाने लगे हैं और भिक्षुकों, सन्यासियों और ब्राह्मणों को दान देना छोड़ रहे हैं। अब उसकी जगह वह धन यूरोपियों का आडम्बर पूर्ण ढ़ंग से मनोरंजन करने में लगाया जाने लगा है।’ ‘रमणीय वृक्ष’ में धर्मपाल जी भारतीय शिक्षा प्रणाली में आये परिवर्तनों के कारणों को बताते हुए लिखते हैं कि- भारतीय भाषाओं में पढ़ाई में कमी का मुख्य कारण पूरे देश में चलाई जा रही ब्रिटिश नीति ही होगी।
भारतीय संस्कृति में हुए इस परिवर्तन के लिए धर्मपाल जी आगे लिखते हैं कि प्रत्येक भाषा का एक विशद अर्थ होता है, उसमे परम्परा, दर्शन-परम्परा और विचार परम्परा की अभिव्यक्ति होती है। जब हम विदेशी भाषा को अपनाते हैं तो प्रायः स्वयं को, विश्व को, व्यक्ति, समाज संस्थाओं, मान्यताओं, लक्ष्यों, रुचियों तथा आदर्शों आदि को भी हम उसी भाषा-परम्परा और संस्कृति-परम्परा से देखने लगते हैं। संभवतः बेंटिक ठीक ही थे क्योंकि सम्पन्न भारतीय जन तब तक स्वदेशी तौर-तरीके छोड़ने लगे थे। इस प्रकार से स्वदेशी व्यवस्था को ध्वस्त होने का जिक्र करते समय धर्मपाल जी का मन दयार्ध हो उठा। धर्मपाल जी के स्वदेशी व्यवस्था में लोगों का लोगों के प्रति निजता जुड़ी थी और जिसका पतन भारतीय संस्कारों एवं सभ्यता का पतन था। स्वदेशी एवं भारतीयता की जो संकल्पना धर्मपाल जी द्वारा प्रयोग की जाती थी वह मानवीय प्रेरक थी।
धर्मपाल जी का मानना था कि भारतीय परम्परा के अनुसार ‘एकता की मान्यता का स्वरुप यह रहा है कि यह जगत धर्म प्रतिष्ठित है, जो व्यक्ति और समाज, धर्ममय आचरण करेंगे वे श्रेयस को प्राप्त करेंगे; जो धर्मच्युत होंगे, सत्य से रिक्त होंगे तथा आत्मसंयम का उलंघन करेंगे वे तत्काल प्रबल दिखाई देने पर भी व्यापक काल प्रवाह में शीघ्र ही क्षय के शिकार हो जायेंगे। इस स्तर पर सम्पूर्ण मानवीय समाज और सम्पूर्ण विश्व एक है।’ इसी एकता की भावना में स्वदेशी का स्वरुप मूर्त हो सकता है, इसी एकता में स्वायत्तता है और इसी एकता में मानव कल्याण है। इस एकता को प्राप्त करने की कुछ शर्तें थीं जिसके लिए हमे आलस्य और हिंसा से दूर रहना था, इसी में मानव कल्याण था। इस एकता के लिए धर्मपाल जी ने कहा कि-‘एकता के प्रति भारतीय मान्यता को देखते हुए तथा देश के भविष्य के बारे में नवचिंतन करते हुए देश को विकसित विश्व के साथ खड़ा होने का मोह छोड़ना होगा।’
धर्मपाल जी के स्वदेशी में भारतीय जीवन मूल्यों का गुण है, चराचर की पवित्रता है, इसके साथ ही उन्होंने जीवन को केवल मनुष्यों या कुछ प्राणियों में सिमित करके नही देखा है बल्कि उसे सर्वत्र देखा है। समग्र सत्ता ही जीवन है, नदी, पर्वत, सागर, वृक्ष, वनस्पति सभी समग्र सत्ता के महत्वपूर्ण अंग हैं। मनुष्य का गौरव सबके प्रति मैत्री, प्रेम तथा करुणा की अभिव्यक्ति और अनुभूति में ही है। हमारी चाक्रवर्त्य की धारणा में दूसरे के समक्ष वीरता के प्रदर्शन का भाव है किसी के गौरव को समाप्त करने का नही। मानवीय मूल्य की इन्हीं सृजन परम्परा को आगे बढ़ाते हुए स्वस्थ्य समाज के लिए लोगों में बंधुत्व की भावना एवं दूसरों के अधिकारों के अस्तित्व को भी मान्यता दी गयी है। धर्मपाल जी के स्वदेशी में भारत में भूमि हो, जल हो या वन, उन सब पर वहां के निवासियों का ही स्वामित्व रहा है, यह अधिकार भारत में प्राचीन परम्परा से ही मान्य रहा है, इसी राजधर्म में लोकधर्म निहित है। इस मानवीय सृजन की परम्परा में हमें स्वदेशी की संकल्पना के लिए अपने लोक कल्याण की भावना जिसके मूल में ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयः’ और ‘वसुधैव कुटुंबकम’ का भाव निहित है। ऐसी स्वस्थ्य परम्पराओं, संस्कारों, स्मृतियों को हमें जीवित रखना होगा जिससे लोक कल्याण की भावना पुनः जीवंत हो उठे।
धर्मपाल जी ने स्वदेशी के माध्यम से सपनों के भारत के निर्माण के लिए जो रास्ता बताया उन्हीं से भारतीय सत्व की रक्षा हो सकती है, इसके लिए हमें आपस में स्वतंत्र तथा सम्मानजनक संवाद तथा सम्प्रेषण करना होगा साथ ही हमारी कृषि व्यवस्था, भवन निर्माण व्यवस्था, वन व्यवस्था, पशु पालन व्यवस्था, वस्त्र निर्माण व्यवस्था तथा शिक्षा व्यवस्था के साथ-साथ समाज की अन्य व्यवस्थाऐं प्राचीन धर्म ग्रन्थ आधारित हो, उस पर आधुनिकता वादियों की शिक्षा का नियंत्रण तथा बोझ न रहे। धर्मपाल जी के स्वधर्म का मूल्य स्वदेशी में, स्वशासन में, बंधुत्व में, करुणा में, प्रेम में और भाईचारे में निहित था, धर्मपाल जी के विचारों में देश को उचाईयों पर ले जाने का मूल्य भारतीयों के स्वधर्म एवं स्वदेशी में निहित था जिससे भारतीय संस्कृति, सभ्यता, संस्कार, शिक्षा, स्ववृत्ति को प्राण मिलता है। ऐसे भारतीय संस्कृति के पुरोधा धर्मपाल जी को शत-शत नमन।
– डॉ रामेश्वर मिश्र