लखनऊ में घनी आबादी में अस्पतालों का मकड़जाल, एंबुलेंस तक फंस रहीं
कई अस्पतालों के पास नहीं एनओसी, न ही आग से बचाव के उपाय

जन एक्सप्रेस/लखनऊ: लखनऊ के लोकबंधु अस्पताल में आंबेडकर जयंती के दिन हुए भीषण अग्निकांड में एक मरीज की जान चली गई। यह कोई पहली घटना नहीं है। प्रदेश भर में हर साल अस्पतालों में आग लगने की घटनाएं होती हैं, लेकिन सरकार और प्रशासन की नींद कुछ दिन बाद फिर टूट जाती है। कार्रवाई होती है, मगर फिर सब कुछ पुराने ढर्रे पर लौट आता है।
प्रदेश में हजारों अस्पताल बिना मानकों का पालन किए धड़ल्ले से संचालित हो रहे हैं। इनमें सरकारी अस्पताल और मेडिकल कॉलेज भी शामिल हैं। घनी आबादी और सकरी गलियों के बीच बने इन अस्पतालों तक न एंबुलेंस समय पर पहुंच पाती है, न दमकल की गाड़ियां। सवाल उठता है कि आखिर इन अस्पतालों को लाइसेंस किस आधार पर दिया गया?
लाभ कमाने की होड़ में कई लोग घरों को ही अस्पताल में तब्दील कर चुके हैं। कई अस्पताल ऐसे इलाकों में चल रहे हैं जो प्रशासन के रिकॉर्ड में ही नहीं हैं। इन अस्पतालों में न केवल मरीजों को भर्ती किया जाता है, बल्कि इलाज के नाम पर मोटी रकम वसूली जाती है। जब कोई हादसा होता है, तब जाकर मामला सामने आता है और फिर शुरू होता है खानापूर्ति वाला एक्शन।
पिछले साल नवंबर में झांसी मेडिकल कॉलेज के नीकू वार्ड में आग से 12 नवजातों की मौत हुई थी। उस वक्त पूरे प्रदेश में अस्पतालों की जांच की गई, छापेमारी हुई, नोटिस जारी हुए और कुछ लाइसेंस भी रद्द किए गए। लेकिन कुछ ही दिनों में कार्रवाई ठंडी पड़ गई और सब कुछ फिर से वैसा ही चलने लगा।
क्लीनिकल इन्वेस्टमेंट एक्ट के तहत अस्पतालों के लिए जरूरी है कि वे पर्याप्त पार्किंग, सर्कुलेशन एरिया और मरीजों की सुविधाओं का ध्यान रखें। लेकिन हकीकत ये है कि प्रदेश के अधिकांश निजी अस्पताल बिना इन बुनियादी सुविधाओं के ही संचालित हो रहे हैं। कारण साफ है— कुछ भ्रष्ट अधिकारियों की मिलीभगत से नियम ताक पर रखे जा रहे हैं। कई अस्पतालों में अग्निशामक यंत्र तक नहीं हैं, और जहां हैं भी, वे सालों से रिफिल नहीं हुए। कुछ यंत्र सिर्फ निरीक्षण के दौरान दिखावे के लिए लगाए जाते हैं। इसके अलावा, अधिकतर मेडिकल स्टाफ को अग्निशामक यंत्र चलाने तक की जानकारी नहीं होती, जिससे आपात स्थिति में खतरा और बढ़ जाता है। अस्पतालों में अग्निकांड से निपटने के लिए स्प्रिंकलर सिस्टम होना अनिवार्य है, लेकिन आंकड़ों के अनुसार प्रदेश के लगभग एक-तिहाई अस्पतालों में यह व्यवस्था ही नहीं है। यह लापरवाही मरीजों की जान पर भारी पड़ सकती है।
डॉ. अरविंद गुप्ता की याचिका पर उच्च न्यायालय इलाहाबाद की सुनवाई, प्रमुख सचिव का हलफनामा असंतोषजनक
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने प्रदेश के मेडिकल कॉलेजों की बदहाल स्थिति को लेकर कड़ा रुख अपनाया है। चिकित्सा शिक्षा और स्वास्थ्य विभाग के प्रमुख सचिव द्वारा दाखिल हलफनामा कोर्ट को संतोषजनक नहीं लगा। इसमें केवल कॉलेजों और अस्पतालों की सूची व बिस्तरों की संख्या थी, जबकि याचिका में उठाए गए महत्वपूर्ण बिंदुओं—फैकल्टी की नियुक्ति, उपकरणों की उपलब्धता और इलाज की गुणवत्ता—का कोई जिक्र नहीं था।
कोर्ट ने कहा कि यह मामला आम जनता के स्वास्थ्य से जुड़ा है और इसे हल्के में नहीं लिया जा सकता। अगली सुनवाई से पहले सभी मुद्दों पर तथ्यात्मक और विस्तृत हलफनामा पेश करने का निर्देश दिया गया है। यदि ऐसा नहीं हुआ, तो उच्च स्तर की कार्रवाई हो सकती है।
बहरहाल प्रदेश के अस्पतालों में अव्यवस्था, भ्रष्टाचार और लापरवाही की तस्वीर बेहद चिंताजनक है। अग्निकांड जैसी घटनाएं चेतावनी हैं कि अब और देर नहीं की जा सकती। सरकार को सख्त नियमों के साथ नियमित निरीक्षण और जवाबदेही सुनिश्चित करनी होगी, ताकि मरीजों की जान से खिलवाड़ बंद हो सके।