बरसात आई, पुल नहीं बना—जनता की जान फंसी, नेता का वादा फिर ढहा!
बरदाहा-चमरौहा पुल बना 'वादों का पुल', हकीकत में आज भी बहता है दर्द

जन एक्सप्रेस चित्रकूट/मानिकपुर। जैसे ही मानसून की पहली बूंद गिरी, बरदाहा-चमरौहा पुल एक बार फिर सुर्खियों में आ गया लेकिन इस बार भी वजह वही पुरानी है: पल नहीं बना , बेहाल जनता और नेताओं के खोखले वादे! हर साल की तरह इस बार भी नदी उफान पर आएगी, गांव कटेंगे, लोग फंसेंगे, और किसी की जान भी जा सकती है। और फिर, किसी जनप्रतिनिधि की ‘संवेदनशील’ प्रेस कॉन्फ्रेंस होगी जिसमें पुल जल्द बनने की ‘कसमें’ खाई जाएंगी।
वर्तमान विधायक अविनाश चंद्र द्विवेदी ने पुल निर्माण के लिए कई बार पत्राचार किया, यहां तक कि इस साल पुल बनवाने की ‘घोषणा’ भी हुई। लेकिन ज़मीनी हकीकत ये है कि पुल अब भी सपने जैसा ही है। अबकी बरस नहीं, शायद अगली बरस! जनता फिर से खुदा-भरसे और सरकार के भरोसे है। बरसात आई, भगवान बरस पड़े लेकिन सरकारी पुल नहीं बरस पाया।
बरदाहा पुल की अहमियत का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि बाढ़ में करीब 200 गांवों का संपर्क मुख्यालय से पूरी तरह कट जाता है। बीमार मरीज़ वक्त पर अस्पताल नहीं पहुंच पाते, और कई बार रास्ते में दम तोड़ देते हैं। जनजीवन थम जाता है, स्कूल, बाज़ार, राशन—सब ठप। लेकिन सबसे गूंगी चीज़ है—सरकार की संवेदनशीलता!
जनता की मांग है सीधी और सच्ची: पुल कब बनेगा ये नेताओं की राजनीति का हिस्सा बना रहे, लेकिन बरसात से पहले वैकल्पिक व्यवस्था जरूर हो! नाव, बांस का पुल, या सेना की तरह अस्थाई ब्रिज—कोई तो इंतज़ाम हो ताकि इंसानी जानें सियासत की बलि ना चढ़ें। बरदाहा का पुल सरकार के लिए एक ‘वादा’ हो सकता है लेकिन यहां के लोगों के लिए ये जिंदगी और मौत के बीच का पुल है।