टॉप न्यूज़देशभ्रष्टाचारराजनीति

न्यूक्लियर डील 2008: भारतीय राजनीति के व्यवसायीकरण की शुरुआत

जन एक्सप्रेस/अरुण कुमार त्रिपाठी

भारतीय लोकतंत्र की दशकों पुरानी परंपरा में 2008 एक निर्णायक मोड़ लेकर आया—एक ऐसा वर्ष जिसने देश की सियासत को स्थायी रूप से प्रभावित किया। अमेरिकी न्यूक्लियर डील पर बहस ने केवल रणनीतिक दिशा ही नहीं बदली, बल्कि भारतीय राजनीति के मूल स्वरूप को भी झकझोर दिया। यह वह मोड़ था जहां से राजनीति, विचारधारा और सिद्धांतों के बजाय सौदेबाजी, गठजोड़ और सत्ता-समीकरण की दलदल में उतरने लगी।

न्यूक्लियर डील की भूमिका

भारत-अमेरिका असैनिक परमाणु समझौता (123 एग्रीमेंट) उस समय के प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह द्वारा आगे बढ़ाया गया एक ऐतिहासिक निर्णय था। इसका उद्देश्य भारत को वैश्विक परमाणु व्यापार में प्रवेश दिलाना था। लेकिन इस डील ने राजनीतिक हलकों में जबरदस्त उथल-पुथल मचा दी। वामदलों ने संप्रग-1 सरकार से समर्थन वापस ले लिया। संसद में विश्वास मत हुआ। और वहीं से शुरू हुआ “राजनीति के व्यवसायीकरण” का नया दौर।

सांसदों की खरीद-फरोख्त और लोकतंत्र की हत्या

22 जुलाई 2008 का संसद सत्र भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में एक कलंक बन गया। टीवी कैमरों के सामने संसद के बीचों-बीच नोटों की गड्डियां दिखाई गईं—आरोप लगे कि सरकार बचाने के लिए करोड़ों रुपये में सांसदों की खरीद-फरोख्त की गई। “कैश फॉर वोट” स्कैंडल ने भारतीय राजनीति की साख पर गहरा धब्बा लगा दिया। यह पहली बार था जब लोकतंत्र की आत्मा को खुलेआम बाजार में बेचा गया।

मनमोहन सिंह: ‘खेड़ा बनकर पैदा हुए व्यक्ति’

डॉ. मनमोहन सिंह व्यक्तिगत रूप से ईमानदार और विद्वान माने जाते हैं, लेकिन न्यूक्लियर डील के समय वे ‘राजनीति की कठपुतली’ बनकर सामने आए। उन्होंने कहा था: “इतिहास मुझे क्षमा नहीं करेगा यदि मैंने यह डील नहीं की।” लेकिन सवाल यह है कि किस इतिहास की बात हो रही थी? अमेरिकी हितों के साथ एकतरफा समझौते को “भारत के आत्मसम्मान” की कीमत पर आगे बढ़ाना क्या कोई राष्ट्रहित था?

उनकी यह जिद, सत्ता में बने रहने की एक राजनीतिक मजबूरी भी थी। कांग्रेस को अमेरिका से संबंध मजबूत करने की जल्दबाजी थी, और इसके बदले भारतीय संसद की गरिमा को गिरवी रख दिया गया।

सियासत का बाजार में तब्दील होना

न्यूक्लियर डील के बाद जो दरवाज़ा खुला, उसने राजनीतिक शुचिता के द्वार बंद कर दिए। गठबंधन की मजबूरी और धनबल की संस्कृति ने राजनीतिक मूल्यों को गिरवी रख दिया। “सिद्धांतों से समझौता” नई सामान्यता बन गई। चुनावी फंडिंग, कॉर्पोरेट लॉबिंग, और समझौता आधारित राजनीति ने भारतीय लोकतंत्र को गटर की ओर ढकेलना शुरू कर दिया।

2008 की न्यूक्लियर डील केवल एक रणनीतिक समझौता नहीं था; वह भारतीय राजनीति की नैतिकता के पतन की शुरुआत थी। यह वह क्षण था जब लोकतंत्र की आत्मा को व्यापारिक सौदे में तब्दील कर दिया गया। मनमोहन सिंह जैसे व्यक्ति, जिनसे उम्मीद थी कि वे राजनीति में पारदर्शिता और नैतिकता लाएंगे, वे भी इसी दलदल में फंस गए। आज जब हम ‘भारत’ को वैश्विक मंचों पर ऊंचा उठते देखते हैं, तो यह याद रखना जरूरी है कि उसकी बुनियाद में कुछ ऐसे समझौते भी हैं जो राजनीतिक पतन के प्रतीक बन चुके हैं।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button