“1971 से कारगिल और अब ऑपरेशन सिंदूर: जब निर्णय ही बनता है राष्ट्र की प्रतिष्ठा”

जन एक्सप्रेस/अरुण कुमार त्रिपाठी
इतिहास साक्षी है- जब भारत की सरहदें संकट में आईं, तब नेतृत्व की असली परीक्षा हुई।
1971 में इंदिरा गांधी, 1999 में अटल बिहारी वाजपेयी और अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कालखंड में घोषित ऑपरेशन सिंदूर- तीनों ही घटनाएं भारत की सैन्य रणनीति और राजनीतिक इच्छाशक्ति की मिसाल हैं। लेकिन आज देश के राजनीतिक विमर्श में कांग्रेस कार्यालय के बाहर लगी एक होर्डिंग- “हर कोई इंदिरा गांधी नहीं हो सकता”- न केवल चर्चा में है बल्कि एक बड़ा प्रश्न भी उठाती है: क्या आज का भारत वैसी ही दृढ़ता और बलिदान को दोहरा सकता है?
1971: जब इंदिरा गांधी ने मांगलिक आभूषण त्याग दिए
यह केवल युद्ध नहीं था, यह भारत के आत्मसम्मान की लड़ाई थी। पूर्वी पाकिस्तान में हो रहे मानवाधिकार उल्लंघन और लाखों शरणार्थियों की पीड़ा को देखते हुए प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने निर्णायक सैन्य हस्तक्षेप किया। कहा जाता है कि उन्होंने इस युद्ध की सफलता के लिए अपना मंगलसूत्र तक उतार कर राष्ट्र के नाम समर्पित कर दिया। यह प्रतीकात्मक त्याग था, पर राष्ट्र के लिए उनके जज़्बे की गहराई को दर्शाता है।
कारगिल 1999: जब अटल बिहारी वाजपेयी ने अमेरिका की धमकी को नजरअंदाज किया
सोशल मीडिया पर चल रही चर्चाओं के अनुसार, कारगिल युद्ध के दौरान जब पाकिस्तान ने अमेरिका के माध्यम से युद्ध रुकवाने का प्रयास किया, तो अटल बिहारी वाजपेयी ने स्पष्ट कहा- “अगर भारत की आधी आबादी भी खत्म हो जाए, हम पीछे नहीं हटेंगे।”
यह कथन भले ही दस्तावेज़ों में न हो, लेकिन जनमानस में यह भारत की आत्मा और अटल जी की दृढ़ता का प्रतीक बन चुका है।
ऑपरेशन सिंदूर: अधूरी हिम्मत या रणनीतिक विवशता?
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा आरंभ किया गया ऑपरेशन सिंदूर एक महत्वाकांक्षी सैन्य पहल थी, जिसका उद्देश्य भारत की बहू-बेटियों को आतंकवाद से मुक्त कराना था। शुरुआत में जनता ने इसे देशभक्ति के प्रतीक के रूप में अपनाया, लेकिन अचानक इस अभियान के ठहराव ने भ्रम और निराशा को जन्म दिया।
क्या यह अंतरराष्ट्रीय दबावों का परिणाम था या कूटनीति की कोई विवशता? यह प्रश्न अब तक अनुत्तरित है, लेकिन जन अपेक्षा यही है कि ऐसा कोई भी अभियान अधूरा न छोड़ा जाए, विशेषतः जब उसकी नींव राष्ट्र की प्रतिष्ठा पर रखी गई हो।
“हर कोई इंदिरा गांधी नहीं हो सकता”: सवाल या चुनौती?
कांग्रेस कार्यालय के बाहर लगी यह होर्डिंग केवल एक राजनीतिक टिप्पणी नहीं, बल्कि एक ऐतिहासिक प्रश्न है- क्या आज का कोई प्रधानमंत्री वैसा ही त्याग और निर्णय दिखा सकता है जैसा इंदिरा गांधी ने दिखाया? क्या मोदी सरकार भी उसी परंपरा को आगे ले जा सकती है?
शांति की कामना: सरहद के लोगों की आवाज
इस पूरे विमर्श में एक आवाज अक्सर अनसुनी रह जाती है- वे लोग जो सरहद के बेहद नज़दीक रहते हैं। जिनके लिए युद्ध महज़ अख़बार की सुर्ख़ी नहीं, बल्कि हर रोज़ का डर और असुरक्षा है।
जहाँ देश के भीतरी हिस्सों में रहने वाले लोग भावनाओं में बहकर “युद्ध चाहिए”, “जवाब चाहिए” की मांग करते हैं, वहीं सीमावर्ती गाँवों और कस्बों में बसने वाले नागरिक शांति और स्थिरता की दुआ करते हैं। उनका सपना युद्ध नहीं, अमन और चैन के साथ ज़िंदगी जीने का है।
राष्ट्र की सुरक्षा केवल जीत की घोषणाओं से नहीं, बल्कि ऐसे संतुलन से होती है जो साहस और संयम दोनों का मेल हो। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि सैनिक लड़ते हैं सरहद पर, पर उनके पीछे खड़े आम लोग भी उसी लड़ाई का सामना करते हैं- घर छोड़ने, स्कूल बंद होने, और जान जोखिम में डालने के रूप में।
निर्णय की परिभाषा क्या होगी?
भारत की राजनीति और सैन्य इतिहास ने हमें सिखाया है कि नेतृत्व की पहचान संकट के समय होती है।
1971 में इंदिरा गांधी का त्याग, 1999 में अटल जी का अडिग निर्णय और अब 2025 में ऑपरेशन सिंदूर- तीनों समय भारत ने अपने नेतृत्व से स्पष्टता और निर्णायकता की अपेक्षा की है।
अब यह वर्तमान नेतृत्व पर निर्भर है कि वह इस ऐतिहासिक परंपरा को केवल स्मरण में रखे या उसे क्रियान्वयन में बदलकर यथार्थ बनाए।
“देश की असली रक्षा केवल सरहद पर नहीं होती, वह तब होती है जब निर्णय बिना भय, बिना दबाव और पूर्ण संकल्प के साथ लिए जाएं- साथ ही उन लोगों की शांति सुनिश्चित हो, जिनकी ज़िंदगी सरहद से बंधी होती है।”
सैनिकों के परिवारों का दर्द: अंतिम विदाई के शब्द
जब हम राष्ट्र की रक्षा में लगे सैनिकों की बहादुरी की बात करते हैं, तो उनके पीछे खड़े परिवारों की भावनाओं को नहीं भूलना चाहिए। वे हर दिन अपने प्रियजनों की सलामती की दुआ करते हैं, और कई बार उन्हें अंतिम विदाई के शब्दों से ही संतोष करना पड़ता है।
कैप्टन दीपक सिंह जम्मू-कश्मीर के डोडा में आतंकवादियों से मुठभेड़ के दौरान शहीद हो गए। मुठभेड़ से पहले उन्होंने अपनी मां से वीडियो कॉल पर कहा, “मा, सब ठीक है… शांति है, मैं रेस्ट कर रहा हूँ।” वास्तव में, वह एक खतरनाक मिशन के लिए तैयार हो रहे थे। यह आखिरी बार था जब उन्होंने अपनी मां से बात की थी।
मेजर केतन शर्मा ने जम्मू-कश्मीर के अनंतनाग में आतंकवादियों से मुठभेड़ से पहले अपने परिवार को व्हाट्सएप पर एक फोटो भेजा और लिखा, “शायद यह मेरी आखिरी फोटो हो।” कुछ घंटे बाद, वह मुठभेड़ में शहीद हो गए।
इन घटनाओं से स्पष्ट होता है कि सैनिकों के परिवार किस मानसिक और भावनात्मक संघर्ष से गुजरते हैं। उनकी पीड़ा और बलिदान को समझना और सम्मान देना हमारी जिम्मेदारी है।